Friday, April 25, 2014

only photographs

an Iranian story about cake in hindi


doors of a Mansion I become nostalgic on seeing them on interne. I always sit at the side seat of our mansion door in my village each day in the evenings when I was a kid


recycled items a chandelier and earrings


recycled earrings

my lovely niece and my daughter
xoxo

Thursday, March 27, 2014

गुड़ ,jaggary


आज राजकिशन नैन का गुड़ के बारे में लेख पढ़ कर अपने घर का गुड़ याद गया मेरे नाना के यहाँ पपोसा गाँव में १५ एकड़ जमीन में गन्ना बोया जाता था खेत में कोठी के पास ही कोल्हू था जिसमें गुड़ के साथ-साथ खाने के लिए खुद्दा भी बनाया जाता था जिसमें नारियल बादाम और अन्य मेवे डाले जाते थे. एक बार जब मैं बहुत छोटी थी  पपोसा में हमारी हवेली की पड्छत्ती में जमा कर रखा गुड़ ज्यादा गर्मी की वजह से पिघल कर बहने लगा काफी नुकसान हुआ था. मेरे नाना के यहाँ से हमारे गाँव खरकड़ी गाँव में जहाँ गन्ना नहीं होता था मेरे नाना खूब गुड,शक्कर और खांड भेजा करते थे। यहाँ पर राजकिशन नैन जी का लेख दे रही हूँ नीचे लिंक भी दिया है।

इन दिनों मिलों में गन्ने की पेराई द्वारा तैयार लाखों टन जिस चीनी के लिए हमारी लार टपकती है, पचास बरस पहले गाँव के लोग, घर के बुड़्ढे रसोई में चीनी को देखकर आपे से बाहर हो जाया करते। देहाती दुनिया में उन दिनों गुड़ शक्कर का ही बोलबाला हुआ करता। वहीं गुड़ जिसके ग़ज़ब के स्वाद और सवायी सुगंध के लिए देवलोक में भी सभा जुड़ जाती थी। आजकल हाथ धोकर हम जिस चीनी के पीछे पड़े हैं उसमें ढंग के खनिज पदार्थ और 'विटामिनों' का अभाव है तो क्या हम गुड की अमृत तुल्य मिठास को हमेशा के लिए भूल जाएँगे।

एक कथा बन गया है गुड़
जितना जी करे उतनी मात्रा में गुड़ खाने की बात तो आजकल एक कथा हो गई है। वह वक्त और था जब हमारे बाप-दादा चार-चार सेर पक्का गुड़ एक बार में खाकर हजम कर लिया करते। कोल्हू का ताज़ा गुड़ खाकर उनके चेहरे लाल सुर्ख हो जाया करते। आज हमें अपनी ढाणियों और गाँवों के ताज़ा गुड़ को खाने की अपेक्षा दूर देश की बासी चीनी गटकने के अवसर ज़्यादा सुलभ हैं। चीनी की चास ने गुड़ का अस्तित्व हमेशा के लिए डिगा दिया है। और आँखें कोल्हुओं को ढूँढ़ रही हैं-
कहाँ गए वो चरखी कोल्हू, कहाँ गई वो मधुर सुवास
 कोल्हू गए कबाड़ी के घर, पूरी हुई गुड़ की आस।
एक पीढ़ी पहले तक हमारे देश के गाँवों में एक करोड़ देसी गुड़ प्रति वर्ष बनता था। हमारे घरों में गुड़ घी, गुड़ भत्ता, गुड़ का हलवा, लापसी, गुड़ की चाय, गुड़ के तिल की तिलकुटी और गुड़ चने खाने का सामान्य रिवाज था। देहाती लोग त्योहार एवं हँसी-खुशी के मौकों पर गुड़ के मीठे पकवान रिश्तेदारों दूरदराज के ढब्बियों को लज़ीज़ सौग़ात के तौर पर भेजा करते। इनमें गुड़ तिल की पंजीरी, गुड़ तिल के लड्डू, गुड़तिल की पट्टी टिकिया, गुड़ तिल के अनरसे, महुआ गुड़ के चिवड़े, सौंठ गुड़ के लड्डू, गुड़ की रेवड़ियाँ, गजक, बताशे-शक्कर पारे, गुलगुले, सुहाली, मालपूए, गुड़ चने के लड्डू, गुड़ की भेली शीरा सरीखा ठेठ चीज़ें होती थी। आज ये तमाम चीज़ें पीछे छूट गई हैं। इस समृद्ध परंपरा को हमने विशेष आयोजन और प्रायोजित त्योहार का दर्जा दे दिया है। अब शहरों की तर्ज़ पर दूरदराज की ढ़ाणियों तक में चीनी ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है। इसीलिए देसी गुड़ बनना बंद हो गया और कोल्हू के 'रोछ-भान' कबाड़ियों के यहाँ धूल फाँक रहे हैं।



लुप्त हो गए कोल्हू


आजकल के किसानों ने मिलों को बढ़ावा देनेवाली सरकारों की दाब के कारण देसी पद्धति से गुड़ बनाना छोड़ दिया है। इसीलिए कोल्हू का तात्ता गुड़ किसी भी गाँव में नहीं मिलता। आधुनिकता की दौड़, फिल्म दूरदर्शन का प्रभाव और खेती कार्यों में आई मशीनी क्रांति के कारण कोल्हुओं के कौतुक लुप्त हो गए हैं। दो दशक पूर्व हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के देहाती अँचलों में मंगसिर से फागुन तक कोल्हुओं की भारी रेल-चेल मचती थी। कोल्हू गाँवों के लोगों की ज़िंदगी में चार महीने तक रस घोला करते। तब जाड़े के दिनों में गाँव-गाँव गुड़ की सौंधी महक उठा करती। उन दिनों गाँव के बुड्ढ़े कुनबे अमूमन अपने घरू कोल्हू जोड़ते थे। घरू कोल्हू में ईख पीड़कर एक कुनबा 'सीजन' के दौरान ३००-५०० मन गुड़ १००-१५० मन शक्कर आसानी से बना लिया करता लेकिन छोटी जोतोंवाले किसान आपसी भाईचारे के तहत लाणे के कोल्हू में रलकर अपना काम साध लिया करते। लाणे के कोल्हुओं में पंद्रह बीस कुनबों के सिर जुड़ा करते और वे आठों पहर 'देहमार' चला करते। दिन में ईख की कटाई, छुलाई ढुलाई होती और रातभर गुड़ पकता।

कोल्हू का संसार

कोल्हुओं का संसार बड़ा विस्तृत और सुखद होता था। कोल्हुओं के दिनों गाँवों की बानियों की शोभा दुगनी हो जाया करती। हरियाणा में खादर और बांग्गर के गाँवों में छिकम्मां कोल्हू जुड़या करते। बाग्गड़ में कोल्हुओं का चलन कम था। कोल्हुओं का काम मंगसिर लगते शुरू होता था और चैत्र उतरे तक जारी रहता था। सबसे पहले भाईचारे के लोग आपस में बोल-बतलाकर कोल्हू के 'राछ-भानों' का जुगाड़ किया करते। कोल्हू और उसके 'राछ' एक निश्चित अवधि के लिए पेचड़ी अथवा कारखाने में किराये पर उठाए जाते थे। गुजारे आले लोग कारखानेदार को दाम चुकता करके 'घरू कोल्हू' बना लिया करते। किराये के कोल्हुओं की मरम्मत का ज़िम्मा कारखानेदार का होता था और 'टूट फूट' भी उसी के सिर होती थी। सर्वप्रथम पाँच सात कूंगर लाल और करड़ी कीकर अथवा शीशम की नौ साढ़े नौ हाथ लंबी पाट का चापता करते थे। तब कोल्हू गाड़ा जाता था। डेढ़ हाथ गहरे दो गड्ढ़े खोदकर लकड़ी की चार 'तांग' गाड़ी जाती। उनमें कोल्हू की दोनों बाजू काबले कसकर थामी 'चुचकार' लिया करते। मण पर सेर गुड़ खाने की मनाही किसी को नहीं होती थी। खोही ढोने के लिए 'मांज्जी' चर्मकार बनाया करते। कोल्हू में अगर नुक्स हो जाता तो खाती कोल्हू में आकर ही उसे सँवारता। कोल्हू जोड़ने पर सर्वप्रथम 'ड्योढ़ी काढ़ी' जाती थी ताकि कोल्हू जोड़ने पर हुए खर्च का बाँटेसिर बँटवारा हो सके। इसके लिए कोल्हू में 'सीरी' बने तमाम लोग अपनी ठाढ़ के मुताबिक घड़े भरा करते। घणें ईखवाला फालतू घड़े भरा देता और थोड़े ईखवाला कम घड़ों में साध लेता इस तरह ज़्यादा ईखवाले को ज़्यादा 'जोट' भरनी पड़ती और कम ईखवाला थोड़ी जोटों में साध लेता। जोट, रात की बारी में रात को भरी जाती और दिन में आती तो दिन में भरी जाती।

अब की बारी किसकी बारी

कोल्हू का खर्च निकालने के बाद यदि ड्योढ़ी के पैसे उबर जाते तो जोट के अनुसार किसान उन्हें आपस में तकसीम कर लिया करते। ड्योढ़ी के काम से फारिग होकर 'बारी' काढ़ी जाती थी। बारी निकालने के लिए जितने जणे कोल्हू में रलते, उतनी 'ठेकरों' पर उनके नाम लिखकर 'हांडी' में डाल देते।

फिर उन्हें रलम-पलम कर के कोई एक ठेक्कर निकाली जाती। जिसके नाम की ठेक्कर पहलम चोट निकलती, उसी की बारी पहले लगती। इसी तरह सबकी बारी उघाड़ ली जाती। जिस किसी की बारी लगती, बाकी सभी जणें उसी के यहाँ घड़े भरते। जो जिसकी बारी में जितने घड़े भरता, अपनी बारी में उससे उतने ही भरवा लेता। पहले, घड़ा मण नौ 'धड़ी' का होता था पर बाद में छह धड़ी तक के घड़े देखे गए। ठाढ़े बुलधोंवाला हाली एक बार में ५४ से लेकर ६० तक घड़े भर दिया करता और बैलों को हाँकने की ज़रूरत नहीं पड़ा करती। घणी जोटवाला एक बार में ही अपना फेर उतार देता पर थोड़ी जोटवाला एक बार में ही अपनी फेर उतार देता पर थोड़ी जोटवाले को कई दफा आना पड़ता। पुराने ईंधन का 'ढूह' अथवा 'कुंजड़ा' नहीं होता तो थालियों से 'खेई' लाकर झोक का प्रबंध किया जाता।

जिसकी बारी होती कोल्हू की 'रुखाल' का जिम्मा उसी का होता। घरू कुत्ते रात के समय ओपरै माणस ने कोल्हू में नहीं बड़ण दिया करते। रस की मैली खा खाकर कुत्ते शेर बरगे हो जाया करते। दिन में वे सैर सपाटे पर रहते पर सांझ घिरते ही कोल्हू में जमा हो जाते। हर कोई जोट भरने के बाद अपने से बादलवाले को जोट जोड़ने के लिए इत्तला किया करता। किसी की जोट आधी रात को आती तो किसी की तड़काऊ। रातवाली जोट में बैलों को सर्दी से बचाने के लिए किसान उन्हें पाल ओढ़ाकर कोल्हू में ले जाया करते जिसका पाल बनवाने का ब्योंत नहीं होता वे पेड़ के चारों तरफ़ 'टाटे' खड़े कर लिया करते।

शहद सी मीठी निराली धुन

जाड़े-पाले की लंबी घनेरी रातों में खुले आसमान तले दिन निकलते तक और फिर दिनभर लोग कोल्हू में मंडे रहा करते। जोट में जुड़े चालणे बहड़को के गले में बँधी 'चुरास्सी' के घुंघरुओं की ध्वनि, पेरे जा रहे गन्नों की चरड़ाहट और तई में पक रहे रस की खद बद के मेल से एक निराली धुन निकला करती थी। काम की मस्ती में डूबे किसानों के कानों में यह शहद का सा रस घोलती थी। जोट में जुड़े बैलों की टालियों के खनकते स्वर गाँवों के चारो ओर गूँजते थे। इस गूँज के साथ किसान नीति, शृंगार बिछोह के गीतों के दरध भरे स्वर मिलाते थे। लाणे के कोल्हुओं में जोगी सारंगी पर 'निहालदे' सुलतान, पदमिनी, अमर सिंह राठौड़ और आल्हा ऊदल के किस्से सुनाया करते। लोक मानस की अभिव्यक्ति जिस व्यापकता के साथ चीरों और वीरांगनाओं के इन किस्सों में निश्छल भाव रूप में झलकती थी, वह अब दुर्लभ है। गाँव के किसी बडेरे माणस से उन किस्सों के दो चार आँकड़े हालाँकि अब भी यदा-कदा सुने जाते हैं पर असलियत यह है कि कोल्हुओं की भाँति, धरती और जीवन की विराटता से जुड़े कोल्हुओं में कहे जाने वाले किस्से तथा वहाँ गाये जाने वाले गीत और पल्हाए भी विस्मृति के अंधेरों में कसक रहे हैं। कोल्हुओं के साथ उनके तमाम कौतुक भी चले गए। बाजे-बाजे हाली कोल्हू में बुलध भजाते समय अपनी महारत का खुला और बेबाक प्रदर्शन किया करते। जाबिया रिसाला पुत्र जयलाल (चौबीसी महम) उनमें से एक था। उनकी एक टिटकारी से बैल कोल्हू में हवा की तह उड़ा करते। कोल्हू में 'पैड़ कुदाने' में दूर-दूर तक उनका कोई सानी नहीं था। कोल्हू की बाहरली पैड़ में सात चारपाई डालकर उनके ऊपर से बुलध कुदाने के उनके करतब को देखने के लिए गुहांड़ो तक के लोग आते थे। वे भंगू पर रुपया रखकर बैलों को इतना तेज़ दौड़ाते थे कि शातिर से शातिर व्यक्ति भी रुपए को उठाकर नहीं ला सकता था। अब वैसे ठाढ़े बैल और रिसाला बरगे के हाली अजायब गाँव में हैं कहीं और।

गुड़ एक- नाम अनेक

कोल्हू खेत में जुड़ता तो गुड़ बैलगाड़ी के ज़रिए ढोया जाता था। यदि 'बणी' में चालता तो पचासेक भेली 'झल्ले' में भरकर ठाढ़े माणस आराम से सिर पर धरकर घर ले आया करते। दसेक भेली तो १५-१६ साल के उठदे से गाभरू उठा लाया करते। घरों में खाने के लिए जो गुड़ रखा जाता था उसमें यदा कदा देसी घी, मूँगफल्ली की गिरी, तिल, मुनक्का, सौंफ सूखे मेवे, काली मिर्च इलायची आदि भी डाली जाती थी। अढ़ाई मण गन्ने से बारह सेर गुड़ बना करता। आकृति के लिहाज से चार तरह का गुड़ उपलब्ध हुआ करता जो खुरपा पाड़, संकर, चाकू ढ़ैय्या नामों से प्रचलित था। गुड़ की सार सँभाल तिजारत के पक्के पुख्ता इंतज़ाम थे। उन दिनों अकाल ज़्यादा पड़ा करते, इसलिए गुड़ आसानी से गिदड़ा नहीं करती था। देसी खादों की ठाढ़ भी गुड़ को बिगड़ने से बचाती थी। 'क्रैशरों' के चलन के बाद श्रेष्ठ गुड़ बनाने की कला धीरे-धीरे कर के लुप्त प्रायः हो चली है। 'क्रैशरों' में जो गुड़ बनता है उसे सोढ़े घातक मसालों की चास से चमकाकर धौला धप्प बना दिया जाता है। इससे गुड़ के तमाम स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाते हैं। भट्ठी की तेज़ आँच गुड़ को कहीं का नहीं छोड़ती। पहले लालड़ी गन्ने का जो देसी गुड़ बना करता, उसकी तासीर इतनी बलवती हुआ करी कि ठाढ़े से ठाढ़ा बैल भी आधा सेर गुड़ नहीं पचा पाता था। यदि इतना गुड़ बुलध खा लेता तो तुरंत 'डांडा' चल पड़ता था। इसीलिए बैल को गुड़ की पेड़ी के साथ थोड़ा नूण अवश्य खिलाया जाता था।

गुड़ के गुण

तब ईख की खेती को कृत्रिम खाद, संधाया तक नहीं जाता था। फलतः देसी गुड़ बरसों खराब नहीं होता था। पुराना होने पर गुड़ के गुणों में और अधिक वृद्धि होती जाती थी। ऐसे गुड़ के देहात में असंख्य उपयोग थे। चोट में बाँधने से लेकर काढ़ा बनाने तक हर किस्म के बरतेवे में गुड़ शामिल था। पर अब रासायनिक खादों ने गन्ने की कुदरती मिठास उसके गुणों को खारेपन से भर दिया है। इसलिए आजकल के ईख से बननेवाला गुड़ अक्सर 'चीड्ढ़ा' ही होता है। रवे का तो इसमें नामों निशान तक नहीं होता।

मुहावरे और गुड़

जीभ यह बता ही नहीं पाती कि गुड़ का स्वाद कैसा है? पर देसी गुड़ के गुणों का कहीं अंत नहीं। कुल्हड़ी में गुड़ फोड़णा, गुड़ की सी बात, गुड़ गोबर करना आदि मुहावरे और गुड़ दिये मरे तो ज़हर क्यों दे, गुड़ ना दे गुड़ की सी बात तो करै, गुड़ खा, गुलगुल्यां तैं परहेज, गुड़ डलिया, घी आंगलियाँ, ईख तक खेती, हाथी तक बनिज, या तो बोओ कपास और ईख या फिर माँगकर खाओं भीख, ईख करें सब कोई, जो बीच में जेठ होए। जेठ में जरे माघ में ठरे, तब जीभी पर रोड़ा पड़े, ईख तीस्सा, गेहूँ, बीस्सा, सदा दिवाली संतघर यदि गुड़ गेहूँ होय और वह किसान मेरे मन को भाये, ईख पीड़कर फगवा गाए, जैसी लोक कहावतें गुड़ की देशव्यापी लोकप्रियता का ठोस प्रमाण है।
आयुर्वेद ने गुड़ को परमौषध और अमृत तुल्य माना है। गुड़ की प्रशस्ति में इसीलिए हमारा सिर झुकता है। अब 'क्रैशर' तो कदम कदम पर हैं, पर ऐसे गाँव बिरले हैं जहाँ बुलधोंवाले कोल्हू से गुड़ बनता है।

 xoxo