Monday, August 15, 2016

my grandma, nostelgia


My grand ma had to work a lot and there was just no opportunity for women to stay home and take care of their children,she had to take care of cattles(collect their dung,make cow dung cakes clean cattle shed)she had to fetch water from well,churn milk, after household and animal husbandry tasks she had to go to farm for rest of the day and return home at dusk . Just like grand ma, I spent my childhood, all school breaks in a remote village with no electricity, TV or other advantages of civilization. I am not regretting it, it was a very happy childhood. We were always outside, playing, reading, helping in the nohara (A semi-covered area with some boundary for keeping the livestockavar ) and our farm   the whole day. We didn’t have electricity, reading good books with the kerosene lantern  light, no refrigerator, storing the food underground, no washing machine, walking miles on sandy path  and washing the clothes in the pond water, no market in the village , picking up our fresh veggies like guavar fali, channa saag, saangari, kaachri, kaachar,petha,ghiya,tindsi from our farm and bitoda area  and getting the water from the well (it was my favorite activity ever!!!).
my grandma's resemblance


my grandma's blouse

My  Gandma was a very important person in my life, a hardworking and loving woman. And she left such an important impact on my life. Gandma left Bagar, her birth place after her marriage when she was 12  years of age and now lives  in Bhiwani District of Haryana   One year she went  to spend her vacation with her parents who live in her grandparent’s house  and she found there a bag full of yarn that was hand-spun by my grandma’s  grandma  many  years ago. She brought that yarn with her when returned to her own house It was so inspiring and emotional to see this yarn and it was a beginning of a wonderful journey of creating something absolutely unique – raw minimally processed traditional Haryanvi  desi cotton. And this is how my love for hand spun raw cotton yarn developed. And I learned all the spinning related tasks including preparing charkha to spun. 

xoxo

Friday, August 12, 2016

nostelgia,itsme

जब 68 में हम न्यारे हुए तब मेरे दादा ने हमें कुछ 17 बीघे जमीन खेती करने के लिए दी वह हमारा नोइआला खेत था जो 40 बीघे  का खेत था। दादा ने जो हिस्सा हमें दिया वह गाँव से खेत आते सबसे पहले पड़ता था  उसमें एक बड़ा टिब्बा था और पूरा खेत डाब घास से लबालब भरा था डाब घास इतनी घनी थी कि  इसमें उपज होना नामुमकिन था। खैर हमने सावन की बाजरे की फसल के लिए खेत का सुड़ काटा मैंने नौवीं कक्षा पास की थी और न्यारे होने  और  मम्मी के बीमार होने की वजह से मैंने दसवीं कक्षा में दाखिला नहीं लिया और पूरी तरह से घर,खेत,डंगर- ढोर के कामों में लग गई थी।   साढ़ी की फसल के बाद जेठ- साढ़ में सावनी की फसल के लिए खेत का सुड़ काटना था। मैंने और मम्मी  ने सुड़ काटा खेत में डाब के साथ-साथ झाड़ियां,बुई,ख़र्सणे ,भरुँट और भी कई किस्म के घास थे झाड़ियों का तो इतना बड़ा हिस्सा था कि कसोले से उन्हें काटते हुए साथ में जेली भी रखनी होती थी जिससे उन्हें समेटते हुए गद्दे से बना लिए जाते थे। खेत साफ़ हो गया बरसात होने के बाद जिन दिनों बुआरे का समय आया तब हमने ल्हास (खेत बिजवाने  के लिए किया जाने वाला प्रयोजन )की इसके लिए हमारे कुनबे के मेरे दादा दयाचंद जिनके मेरी मौसी (ममी की चचेरी बहन )ब्याही हुई थी उन्हें और एक दूसरे व्यक्ति को रखा। उन्होंने हमारे खेत में ऊंट से हल जोत कर बाजरा,मुंग,मोठ और ग्वार  के बीज बोये। उन बीजों में कुछ काकड़ी मतीरों के बीज भी डाल दिये थे।  ल्हास  में  लगाये गये हालियों के लिए खाना स्पेशल बनाना होता था जिसमें रोटी-सब्जी के साथ खांड-बुरा भी परोसी जाती थी, सो मम्मी ने  खूब तर खाना  बनाया।  खेत में बुआरा होने पर हम शाम को बहुत खुश हो घर लौटे थे।  कुछ ही दिनों में जब हम बुआरा देखने खेत गये तब हरियाली खूब थी परन्तु वह ज्यादा डाब घास की वजह से ही थी फसली पौधे मरे-मरे से थे ,हां काकड़ी -मतीरों की  बेलें खूब थी। खैर समय पर बरसात हुई फसल बढ़ी हमनेकसौलों से  निनाण कर उसमें से खरपतवार निकाली जिससे फसल की खुदाई भी हो गई और फ़सल पक कर तैयार हो गई। अब फसल काटने का समय आया। 

xoxo

diary1968

जब 68 में हम न्यारे हुए तब मेरे दादा ने हमें कुछ 17 बीघे जमीन खेती करने के लिए दी वह हमारा नोइआला खेत था जो 40 बीघे  का खेत था। दादा ने जो हिस्सा हमें दिया वह गाँव से खेत आते सबसे पहले पड़ता था  उसमें एक बड़ा टिब्बा था और पूरा खेत डाब घास से लबालब भरा था डाब घास इतनी घनी थी कि  इसमें उपज होना नामुमकिन था। खैर हमने सावन की बाजरे की फसल के लिए खेत का सुड़ काटा मैंने नौवीं कक्षा पास की थी और न्यारे होने  और  मम्मी के बीमार होने की वजह से मैंने दसवीं कक्षा में दाखिला नहीं लिया और पूरी तरह से घर,खेत,डंगर- ढोर के कामों में लग गई थी।   साढ़ी की फसल के बाद जेठ- साढ़ में सावनी की फसल के लिए खेत का सुड़ काटना था। मैंने और मम्मी  ने सुड़ काटा खेत में डाब के साथ-साथ झाड़ियां,बुई,ख़र्सणे ,भरुँट और भी कई किस्म के घास थे झाड़ियों का तो इतना बड़ा हिस्सा था कि कसोले से उन्हें काटते हुए साथ में जेली भी रखनी होती थी जिससे उन्हें समेटते हुए गद्दे से बना लिए जाते थे। खेत साफ़ हो गया बरसात होने के बाद जिन दिनों बुआरे का समय आया तब हमने ल्हास (खेत बिजवाने  के लिए किया जाने वाला प्रयोजन )की इसके लिए हमारे कुनबे के मेरे दादा दयाचंद जिनके मेरी मौसी (ममी की चचेरी बहन )ब्याही हुई थी उन्हें और एक दूसरे व्यक्ति को रखा। उन्होंने हमारे खेत में ऊंट से हल जोत कर बाजरा,मुंग,मोठ और ग्वार  के बीज बोये। उन बीजों में कुछ काकड़ी मतीरों के बीज भी डाल दिये थे।  ल्हास  में  लगाये गये हालियों के लिए खाना स्पेशल बनाना होता था जिसमें रोटी-सब्जी के साथ खांड-बुरा भी परोसी जाती थी, सो मम्मी ने  खूब तर खाना  बनाया।  खेत में बुआरा होने पर हम शाम को बहुत खुश हो घर लौटे थे।  कुछ ही दिनों में जब हम बुआरा देखने खेत गये तब हरियाली खूब थी परन्तु वह ज्यादा डाब घास की वजह से ही थी फसली पौधे मरे-मरे से थे ,हां काकड़ी -मतीरों की  बेलें खूब थी। खैर समय पर बरसात हुई फसल बढ़ी हमनेकसौलों से  निनाण कर उसमें से खरपतवार निकाली जिससे फसल की खुदाई भी हो गई और फ़सल पक कर तैयार हो गई। अब फसल काटने का समय आया। 

xoxo

Thursday, August 4, 2016

village life


जब मैंने छिकी  बनाना सीखा हमारे गाँव के घर में एक देई गाय थी उसका रंग जर्सी गाय जैसा भुरा  था  .मेरी दादी उस गाय का दूध नहीं बिलौती थी उस गाय के दूध को सिर्फ पिया जाता था। मेरे जहाँ में एक धारणा  कि उसे पहले खिन जंगलों में छोड़ा होगा इस तरह वह देई गाय बनी होगी मैंने यह धारणा अपने-आप बना रखी थी घर में किसी से पूछे बिना उसके बारे में घर में तो यही कहा जाता था कि इस गाय को देई छोड़ रखा है। मेरी दादी उस गाय के दूध को अलग से हमारी हवेली के आँगन में बने हारे में गर्म किया करती थी उस हारे को धरती में गाड़ कर बना रखा था उस पर छत बनी थी और उसके आगे लकड़ी का दरवाज़ा बना था जिसको दिन में मेरी दादी ताला लगा कर रखती थी क्योंकि उस हवेली में कुल तीन परिवार रहते थे एक हमारा दूसरे मेरे पिताजी के एक चाचा और रक ताऊ का परिवार साथ ही हवेली का मुख्य दरवाजा दिन में हमेशा खुला रहता था सो चोरी के  मेरी दादी उस हारे को ताला लगाती थी।  
एक दिन मेरे चाचा देई गाय के बछड़े के मुंह पर बाँधने के लिए छिकी बना रहे थे उसे वे कुटी हुई मुंज की रस्सी बनाते हुए जाली के रूप में गूँथ रहे थे मैंने भी उत्सुकता पूर्वक चाचा से छिकी बनानी सीखी बहुत मुश्किल से बना पाई थी।  चिक्की को गाय के बछड़े के मुंह पर बाँध देते थे और उसे उछल-कूद करने को खुला छोड़ देते थे वह नोहरे में खूब उछल-कूद करता था उसकी माँ देई गाय खूंटे पर बन्धी  और वह छिकी बंधी होने पर उसका दूध नहीं चूंघ पाता था। 
गाँव के पाली भी अपने हाथों में ढेरों छिकियाँ लिए होते थे वे जब गायों को चराने अढ़ावे में जाते थे तब कई अड़ियल गायें जो रास्ते में खड़ी फसलों को खाने की कोशिश करती थी उनके मुंह पर भी छिकी बाँध क्र रखते थे और कई बार कई दिन की ब्याई गायों के साथ जब उनके बछड़े-बछड़ियाँ भी करने के लिए साथ  जाते थे तब उनके मुंह पर भी छिकी बाँध दी जाती थी। 


छिकी बंधी गाय

xoxo

Wednesday, August 3, 2016

village, nostelgia


जब दादा- दादी ने हमको न्यारा किया तब हमारे नोहरे में मेरे चाचा और हमारा अलग-अलग घर बनवाया। मेरी दादी और मैंने घर के सब हांडी -बासण,खाट-पलंग, डांगर-ढोर गिने और अंदाजा लगाया कि किसको क्या मिलेगा। परन्तु न्यारे भाँडे टेकने से पहले ही ऐसी लड़ाईयां हुई कि चाचा को तो सबकुछ मिला और हमें कुछ नहीं मिला उन दिनों पिताजी की पोस्टिंग जोरहाट में थी वे अकेले ही जोरहाट रहते थे।  हम गाँव में रहते थे मैंने नौवीं की पढ़ाई साझे में रहते ही तोशाम के गवर्नमेंट हाई स्कूल (को-एजुकेशन) से की थी. 
जिस दिन हमारे भाण्डे नोहरे में बने नये घर में रखे  गये उस दिन रात को अलग से सोने के बाद अगले दिन सुबह ही पिताजी जोरहाट के लिए निकल गये थे उनकी छुट्टियां खत्म हो गई थी। 
मेरे दादा- दादी ने हमें कुछ नहीं दिया न कोई ढोर- डाँगर न कोई लकड़ी-गोसे। गाँव में न तो लकड़ी गोसे मोल मिलते थे न दूध-दही।  जिसके यहां धीणा(दूध देने वाला डांगर,गाय या भैंस) होता था उसके घर से बिना धीणे वाले लोग दूध-लस्सी ले लेते थे और जब उनके यहां धीणा टल जाता तब वे जिसको उन्होंने दूध -लस्सी पहले दिया होता था उनके यहां से ले लेते थे। ऐसे अदला-बदली चला करती थी।  
तो फिर हमारे यहां तो गाय-भैंस थी नहीं हमें दूध-लस्सी देता कौन?   ये तो अच्छा था कि हमारे कुणबे में मेरी एक मौसी( मेरे ननिहाल के कुनबे से मेरे मम्मी के ताऊ की बेटी) ब्याही हुई थी उसके पति रिश्ते में मेरे दादा लगते थे वे मेरे पिता के दोस्त भी थे,सो उनके यहां से हम दूध और लस्सी लाने लगे। अब सवाल यह था कि चूल्हे में जलाएं क्या?
इसके लिए हम दोनों बहनें  फलसे(गाँव का बाहरी हिस्सा) में खड़ी होने वाली गायों का गोबर उठाकर अपने बटोड़े में लेजाकर ढेरों थेपडियां बना लेते थे। इसके लिए हम मुंह अँधेरे(सुबह बहुत जल्दी) उठते थे किसी को पता भी नहीं चलता था कि  गायों का गोबर किसने उठाया। उन दिनों पू रे गाँव भर की गायें -बूढ़ी, बछड़े,बिना दूध की(दूध न देने वाली) और छोटी बछड़ियां रात को गाँव के फ़लसे में खड़ी होती थी शाम को जब पाली गायों को खेतों से चरा कर वापिस लाते तब  घरों में सिर्फ वे गायें बाँधी जाती थी जिनका दूध निकालना होता था उनके बछड़े-बछड़ियाँ घर पर ही बन्धी होती थी। बाकी सब गायें रात को फलसे में ही खड़ी होती थी।  सुबह-सवेरे गाँव के पाली जो कई सारे होते थे वे सभी गायों को अढावे (गाँव वाले अपनी कुछ जमीन बिना जोते  छोड़ देते थे जिसमें गाँव के डाँगर चरते थे, मेरे दादा ने भी अपनी १८ एकड़ दादा-लाई(मेरे परदादा से उत्तराधिकार में मिली खेती की जमीन )मिली  जमीन अढ़ावे के लिए छोड़ रखी थी जो हमारे घाघ का खेत था ). 
तो फिर बात आई गाँव की गायों का गोबर उठा कर  थेपडियाँ बनाने की हम थेपडियाँ इसलिए बनाते थे कि वे एक हाथ से बनती थी और छोटी होती थी जो जल्दी सुख जाती थी जबकि गोस्टे  बड़े होते हैं वे जल्दी नहीं सूखते थे ।  थेपडियाँ बहुत तेज जलती थी परन्तु उनका सेका ज्यादा नहीं होता था थेपड़ियों से हम हारे में खिचड़ी-दलिया-दाल इत्यादि बना लेते थे सर्दियों में उनसे हारे में पानी भी गर्म कर लेते थे।  लकड़ियों के लिए मैं अपनी एक चाची जो धानक समाज से थी मेरी अच्छी सहेली  हो गई थी उसके साथ बनी (बणी)  में  जाया  करती थी वहां से लकड़ियों के भरोटे  के भरोटे लाकर घर के आँगन का कोणा भर लिया था। इस तरह किया  हमने अपने ईंधन का इंतजाम। जब हम न्यारे हुए तब मेरी मम्मी बीमार थी मैंने दसवीं कक्षा में दाखिला नहीं  लिया मैं घर के सभी काम-काज करती और अपने चार छोटे बहन  -भाइयों की देखभाल करती और अपनी बीमार माँ  की भी सेवा -टहल  करती थी मेरी माँ करीबन चार महीने तक चारपाई पर ही रही थी।

xoxo