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Thursday, March 25, 2010

उस रात


जुलाई,१९६७
मेरे पिताजी उन दिनों जोरहट, आसाम में पोस्टड थे और हम सब बहन, अपने भाई अपनी मम्मी के साथ, दादा-दादी के पास गाँव आगये थे में अपने गाँव में सुबह ३.३०-४.०० लेट्रिन करने कुर्डी, जो कि गाँव के बाहर थी जाया करती थी, गाँव में लाइट नहीं थी, पर में बहुत निडर थी अकेली ही चली जाती थी. उस दिन कुछ एसा हुआ कि जैसे ही में कुर्डी के नजदीक पहुंची हमारे गाँव की एक औरत ( दिलीप की बहु जो रिश्ते में मेरी दादी लगती थी मानसिक रोगी थी), मेरी ऑर लपकने लगी में उससे डर कर रास्ते में किसी के घर की ओर, जहाँ से दिए कि रौशनी आ रही थी, की तरफ बढने लगी उनकी चौखट पर चढ़ गई तब वह( दिलीप की बहु) भी समझ गई कि वह घर का दरवाजा खटका देगी और वह हंस पड़ी बोली " बेटी डरगी के... जंगल होंन आई सै..हाँ बेटी बहोत बख्त उठे सै...बख्त उठ कीं पढ्या करे के बेटी" में दबी जबान से बोली " हाँ दादी" और झटपट कुर्डी पर निपट कर घर चली गई. घर जाकर मैने अपनी दादी से सारी बात बताई, उस दिन के बाद काफी दिनों तक सुबह मेरी दादी मेरे कुर्डी पर जंगल होने साथ जाने लगी थी.