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Thursday, March 25, 2010

जुलाई, १९९७: गाँव की कुरड़ी और वह अजीब सामना

बात जुलाई, १९९७ की है। पिताजी उन दिनों असम के जोरहाट में पोस्टेड थे। हम सब बहन, अपने भाई और मम्मी के साथ, छुट्टियाँ बिताने दादा-दादी के पास गाँव आए हुए थे। गाँव में बिजली नहीं थी और घरों में शौचालय भी नहीं थे। सुबह ३:३०-४:०० बजे का समय होता, और मुझे शौच के लिए 'कुरड़ी' (हरियाणवी भाषा में गाँव के बाहर वह खुली जगह जहाँ कूड़ा-कचरा जमा होता था और शौच के लिए उपयोग होती थी) जाना पड़ता। मैं बहुत निडर थी और अकेले ही चली जाती थी। उस दिन भी मैं रोज़ की तरह अँधेरे में शौच जाने के लिए कुरड़ी की ओर अकेली ही निकली। जब मैं कुरड़ी के नज़दीक पहुँची, तभी अचानक मैंने देखा कि सामने से हमारे गाँव की एक महिला—दिलीप की बहू, जो रिश्ते में मेरी दादी लगती थीं और मानसिक रूप से थोड़ी अस्वस्थ थीं—आ रही थी। उसने सिर पर कूड़े का खाली तसला ((कढ़ाई या परात के समान एक बर्तन जिसे किसी सामान मिट्टी, रेत, मसाला, अनाज,या कूड़ा-कर्कट एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है )उठा रखा था। वह अपने घर का कूड़ा-कचरा फेंक कर आई थी। उन्हें देखकर मैं एक तरफ हटने लगी, वह भी मेरी तरफ सरकने लगीं। एक पल के लिए तो मैं बुरी तरह सहम गई। मैं डरकर चीखने ही वाली थी कि तभी पास के एक घर से दिए की हल्की रौशनी दिखी। मैं जान बचाने के लिए उस रौशनी की ओर भागी और सीधे उस घर की चौखट पर चढ़ गई, ताकि दरवाज़ा खटखटा सकूँ। मेरी घबराहट देखकर वह महिला भी रुक गईं। शायद वह समझ गईं थीं कि अब मैं किसी को बुला लूँगी। वह अचानक हँस पड़ीं और बोलीं, "बेटी, डर गई क्या? जंगल (गाँव में शौच जाने को 'जंगल जाना' कहते हैं) हो के आई है... हाँ बेटी, बहुत वक़्त (जल्दी) उठती है... वक़्त उठकर पढ़ा करते हैं क्या बेटी?" मैं डर के मारे दबी ज़बान में बस "हाँ दादी" ही कह पाई। मेरी तो उस समय साँस अटकी हुई थी। मैंने झटपट कुरड़ी पर अपना काम निपटाया और सीधे घर की तरफ़ भागी। घर पहुँचते ही मैंने अपनी दादी माँ को सारी बात बताई। उस दिन के बाद, काफ़ी दिनों तक सुबह के उस पहर में मेरी दादी तब तक मेरे साथ कुरड़ी पर जाने लगीं। वह घटना आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है।

Tuesday, March 9, 2010

जब में सूड़ (prepration of land forsowing)काटने गई

अप्रेल ३,1967
उस दिन खेत में सूड़ ( झाड़ इत्यादि) काटन...
अप्रेल ३ उस दिन खेत में सूड़ ( झाड़ इत्यादि) काटने नोइवाले खेत में गये। खेत में इतने झाड़ झंखाड़ थे कि घुसना मुश्किल था, पर खेत साफ करना जरूरी था सिर पर मंदासा बांधा और सूड़ काटने जुट गई झाड़ों को कसोले से काटते हुए जेली से इक्कट्ठा करती गई, थोड़ी देर में मेर दादा वहाँ आ गये देख कर बड़े खुश हुए कहा कि मेरी बेटी ने यक जवान की तरह काम किया है। जिसकी काम करने की नियत हो वह क्या नहीं कर सकता.
xoxo