1963
1963
मेरे पिताजी की पोस्टिंग जामनगर, गुजरात से आगरा हो गई थी। वे किसी वजह से हम बच्चों और ममी को अपने साथ आगरा
नहीं ले जा सके थे अतः हमें अपने गाँव दादा-दादी , चाचा चाचियों के
साथ रहना पड़ा था। मैं उस समय पांचवी कक्षा में पढ़ती थी. स्कूल हमारी हवेली के नजदीक ही था साल में वह आर्य समाज का मन्दिर था उसके निचले तले में जहां हमारी पांचवी की कक्षा लगती
थी उसके बीचों -बीच एक बड़ा सा हवन कुंड बना हुआ था। किसी समय जब आर्य समाज
का जोर था तब वहां हवन हुआ करता था मेरे पर दादा आर्य समाज के प्रधान बनाये
गए थे 1907 में हमारे गांव में आर्य समाज का एक बहुत बड़ा
सम्मेलन हुआ था उस समय मेरे पर दादा जो कि साहूकार थे उन्होंने आर्य समाज
संस्था को 100 रूपये दान में दिये थे उसी सम्मेलन में 1907 को उन्हें आर्य समाज का प्रधान बनाया था। पुरे गाँव ने आर्यसमाज अपनाया था
पुराने कट्टरपंथी रिवाज एवं अंधविश्वास छोड़ कर आर्यसमाज के नियम अपनाने का व्रत लिया था
जिन दिनों में उस स्कूल में पांचवी कक्षा में पढ़ती थी उस समय तक वहां कोई स्कूल की अलग से बिल्डिंग इत्यादि नहीं थी .वह केवल गाँव का पांचवी कक्षा तक का स्कूल ही था जिसे गाँव के लोग मदरसा कहते थे। उस समय की बहुत सी बातें मेरे ध्यान में रहती थी जिन्हें मैंने डायरी के रूप में गाँव में रहते ही लिखा था उन दिनों मैं दसवीं कक्षा में थी और हमें दुबारा से गाँव रहना पड़ा था मेरे पिताजी जो कि एयर फ़ोर्स में थे उनकी पोस्टिंग जोरहाट,आसाम हो गई थी। पांचवी में स्कूल में हमें तख्ती लिखनी होती थी लकड़ी की तख्ती जिसके दोनों तरफ़ लिखा जाता था उस पर सुलेख लिखना होता था। तख्ती की स्याही मिटाने के लिए रोजाना धोना पड़ता था धोकर उस पर मुल्तानी मिटटी का लेप करके उसके किनारों को उँगलियों से लाईन सी बनाकर सुंदर सा किया जाता था मैं अपनी तख्ती बहुत सुंदर तरीके से धोकर लिपती थी। तख्ती को खुद साफ़ क्र उसे बार-बार पोतना सचमुच अहसास दिलाता था कि जिंदगी में कुछ क्र गुजरने के लिए म्हणत बहुत जरूरी हो जाती है. तख्ती पर कलम से लिखा जाता था कलम भी खुद ही बनानी पड़ती थी उसके लिए खेतों से मूँज के सरकंडे लाया करते थे उन्हें पेन्सिल जितनी लम्बाई का काट कर उसके एक सिरे को तेज़ चाक़ू से छिल कर पैना किया जाता था. कलम के सिरे पर्यटक टक काटना पड़ता था मैं तेज़ चाकू से कलाम सँवारती तख्ती खड़ी करके उस पर कलम की चोंच रखकर उस पर तेज चाक़ू रखती और उसपर जोर से मुक्का मारती। तब कहीं जाकर कलम का सुन्दर सा टक कटता और उसके आगे निब सी बन जाती थी । उससे बहुत सुन्दर लिखाई आती थी. स्याही बनी बनाई नहीं आती थी वह भी बनानी पड़ती थी उसके लिए सुखी स्याही की पुड़िया आती थी जिसे दवात में डाल कर उसमें पानी डाल कर रात भर के लिए भिगोया जाता था फिर उसे सरकंडे से खूब अच्छी तरह मिलाया जाता था तब वह तैयार होती थी। कलम को स्याही में डुबो -डुबोकर लिखा जाता था लिखते समय साथ में बराबर स्याही की दवात रखनी होती थी, क्योंकि एक बार कलम को स्याही में डुबोने पर एक अक्षर मुश्किल से लिखा जाता था। दूसरे अक्षर लिखने के लिए बार-बार कलम को स्याही की दवात में डुबोना पड़ता था। तख्ती पर लिखना सूखने की प्रतीक्षा करना, फिर दूसरी तरफ लिखना फिर सूखने की प्रतीक्षा करना, फिर मास्टरजी को दिखाना, फिर घर जाकर तख्ती को धोना, लिपना, पोतना सुखाना यह सब नित्य कर्म था। मैं रोजाना हाथ में तख्ती गले में बस्ता और दूसरे हाथ में स्याही की डिबिया लेकर स्कूल जाती थी। स्कूल में हमें सुलेख रोजाना लिखना पड़ता था। मास्टर जी सबका सुलेख जांचते थे जिसका सुलेख सुंदर होता उसे शाबासी मिलती थी। उस समय स्कूल की एक और बात याद आती अति है, पहाड़े याद करना पहाड़े याद किये बिना जोड़-घटाव गुणा -भाग कुछ भी करपाना असम्भव था.
हमारे पांचवी के केवल एक मास्टर जी थे वही सारे विषय पढाते थे मदरसा गाँव के बीचों बीच था आधी छुट्टी में सब बच्चे अपने-अपने घर खाना खाने जाते थे। स्कूल में लड़के-लड़की इक्कट्ठे पढ़ते थे। मैं अपनी कक्षा में अकेली लड़की थी हमारी कक्षा के सभी लड़के बहुत बड़े-बड़े थे एक लड़का तो शादी-सुदा था यानि कि उसके बड़े भाई की फ़ौज में मौत हो जाने के बाद उसकी पत्नी यानी कि उसकी भाभी को उस लड़के के पल्ले लगा दिया था। वह लड़का बहुत बदमाश था एक दिन हमारे मास्टर जी अपनी मेज कुर्सी के चारों ओर हमारी कुर्सियां डलवा कर हमें पढा रहे थे पांचवी कक्षा में हम केवल छः विद्यार्थी थे उस दिन वह लड़का बार-बार मेरे पैरों पर अपने पैर मार रहा था मैं शर्म के मारे कुछ नहीं कह पा रही थी मास्टर जी ने कुर्सी के नीचे नजर डाल उस लड़के को देख लिया और उसे बहुत डांटा। लड़कों की मेरे साथ शरारत की केवल यही एक बात थी और सब--कुछ ठीक-ठाक था। पांचवी कक्षा के इम्तहानों में मैं सबसे अव्वल नम्बर लेकर पास हुई थी।
उस लड़के का घर मदरसे के बिलकुल पास था उसकी मां भैंस को जोहड़ में पानी पिलाने ले जाती थी तब मदरसे के बरामदे में पढ़ते हुए हमें अक्सर दिखा करती थी। एक बार वह भैंस को पानी पिलाने के बाद हाथ में डण्डा लिए खाली लौट आती और मदरसे के बरामदे के नीचे से डंडे के ऊपरी सिरे पर दोनों हाथ रख कर उस पर अपनी ठोड़ी रख कर कुछ इस तरह बोलती ,"मास्टर जी दलबीर नैं घालियो भैंस पाणी मैं बड़ गी लीकड़दी कौनी जोड़ मैं बड़ कीं उसनें दलबीर ए काडे गा।" मास्टर जी कहते कोई और नहीं है जो तुम्हारी भैंस को जोहड़ से बाहर निकाले। दलबीर की माँ कहती," मलाई तो यो खा भैंस दुसरा कौन काढ़ण लाग्या। " दलवीर दोनों भाईयों में छोटा था बड़े भाई की पत्नी उसकी पत्नी बना दी गई थी अतः उसे तगड़ा करने के लिए हारे में कढावणी में रखे दूध की मलाई उसे ही खिलाई जाती थी ताकि वह जल्दी तगड़ा हो जाये।
No comments:
Post a Comment