यह उन दिनों की बात है जब मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी मुझे आगरा में मिड सैशन में किसी स्कूल में दाखिला नहीं मिला तब मेरे पिताजी ने मुझे और मेरी छोटी बहन को गाँव में छोड़ा गाँव में पांचवी कक्षा तक स्कूल था अतः मुझे तोशाम के मिडिल स्कूल में दाखिल दिलवा दिया गया। गाँव में रहते मैं अपने आस-पास की लड़कियों से जो स्कूल नहीं जाती थी कुछ न कुछ सीखती रहती थी।
उन्हीं दिनों आक के डोडे तोड़ कर उस में से बीज दूर कर कपास जैसे फाहे निकाल कर उन्हें चरखे पर कात लिया जाता था और उस रुई जैसे फाहे को रंग कर गलीचे बनाये जाते थे। छुट्टियों में मैं भी मेरी हम उम्र बुआ के साथ आक के डोडे खेतों की मेंड़ों के किनारों और बणी में से तोड़ कर लाई और मेरी दादी ने उन्हें काता आक के डोडों की रुई को कातना बहुत मुश्किल होता था मैंने भी कातने की कोशिश की और काफी काता भी। डोडों में से फाये उड़-उड़ जाते थे और नाक में भी चढ़ जाते थे कातते समय मुँह पर ढाठा/ कपड़े का नकाब बांन्धना पड़ता था। खैर मैंने भी एक छोटा सा गलीचा आक के डोडों से बनाया परन्तु वह ज्यादा टिकाऊ नहीं था उसके रेशे बल / धागों पर लगाए जाने वाला बट नहीं सहन कर सकते थे और बल खुल कर उधड़ जाते थे। फिर कुछ दिनों बाद उनका रिवाज जाता रहा। परन्तु हैरान करने वाली बात यह है कि वह गलीचे हरियाणा के हर कोने में बनाये गए थे जैसा कि यहां हरियाणा में रहते आज भी मैं हरियाणा के विभिन्न हिस्सों की औरतों से पूछ लेती हूँ।
xoxo
आक का पौधा |
आक का फाहे निकला डोडा साथ में आक के बीज भी दिखाई दे रहे हैं |
xoxo
No comments:
Post a Comment