Showing posts with label 1968. Show all posts
Showing posts with label 1968. Show all posts

Friday, August 12, 2016

nostelgia,itsme

जब 68 में हम न्यारे हुए तब मेरे दादा ने हमें कुछ 17 बीघे जमीन खेती करने के लिए दी वह हमारा नोइआला खेत था जो 40 बीघे  का खेत था। दादा ने जो हिस्सा हमें दिया वह गाँव से खेत आते सबसे पहले पड़ता था  उसमें एक बड़ा टिब्बा था और पूरा खेत डाब घास से लबालब भरा था डाब घास इतनी घनी थी कि  इसमें उपज होना नामुमकिन था। खैर हमने सावन की बाजरे की फसल के लिए खेत का सुड़ काटा मैंने नौवीं कक्षा पास की थी और न्यारे होने  और  मम्मी के बीमार होने की वजह से मैंने दसवीं कक्षा में दाखिला नहीं लिया और पूरी तरह से घर,खेत,डंगर- ढोर के कामों में लग गई थी।   साढ़ी की फसल के बाद जेठ- साढ़ में सावनी की फसल के लिए खेत का सुड़ काटना था। मैंने और मम्मी  ने सुड़ काटा खेत में डाब के साथ-साथ झाड़ियां,बुई,ख़र्सणे ,भरुँट और भी कई किस्म के घास थे झाड़ियों का तो इतना बड़ा हिस्सा था कि कसोले से उन्हें काटते हुए साथ में जेली भी रखनी होती थी जिससे उन्हें समेटते हुए गद्दे से बना लिए जाते थे। खेत साफ़ हो गया बरसात होने के बाद जिन दिनों बुआरे का समय आया तब हमने ल्हास (खेत बिजवाने  के लिए किया जाने वाला प्रयोजन )की इसके लिए हमारे कुनबे के मेरे दादा दयाचंद जिनके मेरी मौसी (ममी की चचेरी बहन )ब्याही हुई थी उन्हें और एक दूसरे व्यक्ति को रखा। उन्होंने हमारे खेत में ऊंट से हल जोत कर बाजरा,मुंग,मोठ और ग्वार  के बीज बोये। उन बीजों में कुछ काकड़ी मतीरों के बीज भी डाल दिये थे।  ल्हास  में  लगाये गये हालियों के लिए खाना स्पेशल बनाना होता था जिसमें रोटी-सब्जी के साथ खांड-बुरा भी परोसी जाती थी, सो मम्मी ने  खूब तर खाना  बनाया।  खेत में बुआरा होने पर हम शाम को बहुत खुश हो घर लौटे थे।  कुछ ही दिनों में जब हम बुआरा देखने खेत गये तब हरियाली खूब थी परन्तु वह ज्यादा डाब घास की वजह से ही थी फसली पौधे मरे-मरे से थे ,हां काकड़ी -मतीरों की  बेलें खूब थी। खैर समय पर बरसात हुई फसल बढ़ी हमनेकसौलों से  निनाण कर उसमें से खरपतवार निकाली जिससे फसल की खुदाई भी हो गई और फ़सल पक कर तैयार हो गई। अब फसल काटने का समय आया। 

xoxo

diary1968

जब 68 में हम न्यारे हुए तब मेरे दादा ने हमें कुछ 17 बीघे जमीन खेती करने के लिए दी वह हमारा नोइआला खेत था जो 40 बीघे  का खेत था। दादा ने जो हिस्सा हमें दिया वह गाँव से खेत आते सबसे पहले पड़ता था  उसमें एक बड़ा टिब्बा था और पूरा खेत डाब घास से लबालब भरा था डाब घास इतनी घनी थी कि  इसमें उपज होना नामुमकिन था। खैर हमने सावन की बाजरे की फसल के लिए खेत का सुड़ काटा मैंने नौवीं कक्षा पास की थी और न्यारे होने  और  मम्मी के बीमार होने की वजह से मैंने दसवीं कक्षा में दाखिला नहीं लिया और पूरी तरह से घर,खेत,डंगर- ढोर के कामों में लग गई थी।   साढ़ी की फसल के बाद जेठ- साढ़ में सावनी की फसल के लिए खेत का सुड़ काटना था। मैंने और मम्मी  ने सुड़ काटा खेत में डाब के साथ-साथ झाड़ियां,बुई,ख़र्सणे ,भरुँट और भी कई किस्म के घास थे झाड़ियों का तो इतना बड़ा हिस्सा था कि कसोले से उन्हें काटते हुए साथ में जेली भी रखनी होती थी जिससे उन्हें समेटते हुए गद्दे से बना लिए जाते थे। खेत साफ़ हो गया बरसात होने के बाद जिन दिनों बुआरे का समय आया तब हमने ल्हास (खेत बिजवाने  के लिए किया जाने वाला प्रयोजन )की इसके लिए हमारे कुनबे के मेरे दादा दयाचंद जिनके मेरी मौसी (ममी की चचेरी बहन )ब्याही हुई थी उन्हें और एक दूसरे व्यक्ति को रखा। उन्होंने हमारे खेत में ऊंट से हल जोत कर बाजरा,मुंग,मोठ और ग्वार  के बीज बोये। उन बीजों में कुछ काकड़ी मतीरों के बीज भी डाल दिये थे।  ल्हास  में  लगाये गये हालियों के लिए खाना स्पेशल बनाना होता था जिसमें रोटी-सब्जी के साथ खांड-बुरा भी परोसी जाती थी, सो मम्मी ने  खूब तर खाना  बनाया।  खेत में बुआरा होने पर हम शाम को बहुत खुश हो घर लौटे थे।  कुछ ही दिनों में जब हम बुआरा देखने खेत गये तब हरियाली खूब थी परन्तु वह ज्यादा डाब घास की वजह से ही थी फसली पौधे मरे-मरे से थे ,हां काकड़ी -मतीरों की  बेलें खूब थी। खैर समय पर बरसात हुई फसल बढ़ी हमनेकसौलों से  निनाण कर उसमें से खरपतवार निकाली जिससे फसल की खुदाई भी हो गई और फ़सल पक कर तैयार हो गई। अब फसल काटने का समय आया। 

xoxo

Thursday, August 4, 2016

village life


जब मैंने छिकी  बनाना सीखा हमारे गाँव के घर में एक देई गाय थी उसका रंग जर्सी गाय जैसा भुरा  था  .मेरी दादी उस गाय का दूध नहीं बिलौती थी उस गाय के दूध को सिर्फ पिया जाता था। मेरे जहाँ में एक धारणा  कि उसे पहले खिन जंगलों में छोड़ा होगा इस तरह वह देई गाय बनी होगी मैंने यह धारणा अपने-आप बना रखी थी घर में किसी से पूछे बिना उसके बारे में घर में तो यही कहा जाता था कि इस गाय को देई छोड़ रखा है। मेरी दादी उस गाय के दूध को अलग से हमारी हवेली के आँगन में बने हारे में गर्म किया करती थी उस हारे को धरती में गाड़ कर बना रखा था उस पर छत बनी थी और उसके आगे लकड़ी का दरवाज़ा बना था जिसको दिन में मेरी दादी ताला लगा कर रखती थी क्योंकि उस हवेली में कुल तीन परिवार रहते थे एक हमारा दूसरे मेरे पिताजी के एक चाचा और रक ताऊ का परिवार साथ ही हवेली का मुख्य दरवाजा दिन में हमेशा खुला रहता था सो चोरी के  मेरी दादी उस हारे को ताला लगाती थी।  
एक दिन मेरे चाचा देई गाय के बछड़े के मुंह पर बाँधने के लिए छिकी बना रहे थे उसे वे कुटी हुई मुंज की रस्सी बनाते हुए जाली के रूप में गूँथ रहे थे मैंने भी उत्सुकता पूर्वक चाचा से छिकी बनानी सीखी बहुत मुश्किल से बना पाई थी।  चिक्की को गाय के बछड़े के मुंह पर बाँध देते थे और उसे उछल-कूद करने को खुला छोड़ देते थे वह नोहरे में खूब उछल-कूद करता था उसकी माँ देई गाय खूंटे पर बन्धी  और वह छिकी बंधी होने पर उसका दूध नहीं चूंघ पाता था। 
गाँव के पाली भी अपने हाथों में ढेरों छिकियाँ लिए होते थे वे जब गायों को चराने अढ़ावे में जाते थे तब कई अड़ियल गायें जो रास्ते में खड़ी फसलों को खाने की कोशिश करती थी उनके मुंह पर भी छिकी बाँध क्र रखते थे और कई बार कई दिन की ब्याई गायों के साथ जब उनके बछड़े-बछड़ियाँ भी करने के लिए साथ  जाते थे तब उनके मुंह पर भी छिकी बाँध दी जाती थी। 


छिकी बंधी गाय

xoxo