जब दादा- दादी ने हमको न्यारा किया तब हमारे नोहरे में मेरे चाचा और हमारा अलग-अलग घर बनवाया। मेरी दादी और मैंने घर के सब हांडी -बासण,खाट-पलंग, डांगर-ढोर गिने और अंदाजा लगाया कि किसको क्या मिलेगा। परन्तु न्यारे भाँडे टेकने से पहले ही ऐसी लड़ाईयां हुई कि चाचा को तो सबकुछ मिला और हमें कुछ नहीं मिला उन दिनों पिताजी की पोस्टिंग जोरहाट में थी वे अकेले ही जोरहाट रहते थे। हम गाँव में रहते थे मैंने नौवीं की पढ़ाई साझे में रहते ही तोशाम के गवर्नमेंट हाई स्कूल (को-एजुकेशन) से की थी.
जिस दिन हमारे भाण्डे नोहरे में बने नये घर में रखे गये उस दिन रात को अलग से सोने के बाद अगले दिन सुबह ही पिताजी जोरहाट के लिए निकल गये थे उनकी छुट्टियां खत्म हो गई थी।
मेरे दादा- दादी ने हमें कुछ नहीं दिया न कोई ढोर- डाँगर न कोई लकड़ी-गोसे। गाँव में न तो लकड़ी गोसे मोल मिलते थे न दूध-दही। जिसके यहां धीणा(दूध देने वाला डांगर,गाय या भैंस) होता था उसके घर से बिना धीणे वाले लोग दूध-लस्सी ले लेते थे और जब उनके यहां धीणा टल जाता तब वे जिसको उन्होंने दूध -लस्सी पहले दिया होता था उनके यहां से ले लेते थे। ऐसे अदला-बदली चला करती थी।
तो फिर हमारे यहां तो गाय-भैंस थी नहीं हमें दूध-लस्सी देता कौन? ये तो अच्छा था कि हमारे कुणबे में मेरी एक मौसी( मेरे ननिहाल के कुनबे से मेरे मम्मी के ताऊ की बेटी) ब्याही हुई थी उसके पति रिश्ते में मेरे दादा लगते थे वे मेरे पिता के दोस्त भी थे,सो उनके यहां से हम दूध और लस्सी लाने लगे। अब सवाल यह था कि चूल्हे में जलाएं क्या?
इसके लिए हम दोनों बहनें फलसे(गाँव का बाहरी हिस्सा) में खड़ी होने वाली गायों का गोबर उठाकर अपने बटोड़े में लेजाकर ढेरों थेपडियां बना लेते थे। इसके लिए हम मुंह अँधेरे(सुबह बहुत जल्दी) उठते थे किसी को पता भी नहीं चलता था कि गायों का गोबर किसने उठाया। उन दिनों पू रे गाँव भर की गायें -बूढ़ी, बछड़े,बिना दूध की(दूध न देने वाली) और छोटी बछड़ियां रात को गाँव के फ़लसे में खड़ी होती थी शाम को जब पाली गायों को खेतों से चरा कर वापिस लाते तब घरों में सिर्फ वे गायें बाँधी जाती थी जिनका दूध निकालना होता था उनके बछड़े-बछड़ियाँ घर पर ही बन्धी होती थी। बाकी सब गायें रात को फलसे में ही खड़ी होती थी। सुबह-सवेरे गाँव के पाली जो कई सारे होते थे वे सभी गायों को अढावे (गाँव वाले अपनी कुछ जमीन बिना जोते छोड़ देते थे जिसमें गाँव के डाँगर चरते थे, मेरे दादा ने भी अपनी १८ एकड़ दादा-लाई(मेरे परदादा से उत्तराधिकार में मिली खेती की जमीन )मिली जमीन अढ़ावे के लिए छोड़ रखी थी जो हमारे घाघ का खेत था ).
तो फिर बात आई गाँव की गायों का गोबर उठा कर थेपडियाँ बनाने की हम थेपडियाँ इसलिए बनाते थे कि वे एक हाथ से बनती थी और छोटी होती थी जो जल्दी सुख जाती थी जबकि गोस्टे बड़े होते हैं वे जल्दी नहीं सूखते थे । थेपडियाँ बहुत तेज जलती थी परन्तु उनका सेका ज्यादा नहीं होता था थेपड़ियों से हम हारे में खिचड़ी-दलिया-दाल इत्यादि बना लेते थे सर्दियों में उनसे हारे में पानी भी गर्म कर लेते थे। लकड़ियों के लिए मैं अपनी एक चाची जो धानक समाज से थी मेरी अच्छी सहेली हो गई थी उसके साथ बनी (बणी) में जाया करती थी वहां से लकड़ियों के भरोटे के भरोटे लाकर घर के आँगन का कोणा भर लिया था। इस तरह किया हमने अपने ईंधन का इंतजाम। जब हम न्यारे हुए तब मेरी मम्मी बीमार थी मैंने दसवीं कक्षा में दाखिला नहीं लिया मैं घर के सभी काम-काज करती और अपने चार छोटे बहन -भाइयों की देखभाल करती और अपनी बीमार माँ की भी सेवा -टहल करती थी मेरी माँ करीबन चार महीने तक चारपाई पर ही रही थी।
xoxo
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